भारतीय शिक्षा को मैकाले का योगदान
भारतीय शिक्षा के इतिहास में मैकाले का क्या योगदान रहा, इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं । कुछ विद्वान् मैकाले को भारतीय शिक्षा के इतिहास में मार्ग-प्रदर्शक मानकर चलते हैं, दूसरे विद्वानों के अनुसार मैकाले को भारत को दासता की जंजीर में जकड़ने के लिए उत्तरदायी माना जाता है ।
दादाभाई नौरोजी ने मैकाले की प्रशंसा करते हुए कहा था कि मैकाले भारत की उन्नति करना चाहता था, उसके इरादे नेक थे। उसने हमारी संस्कृति पर जो आरोप लगाये, उनको हमें उदारतापूर्वक भूल जाना चाहिए। उसकी अज्ञानता के लिए हमें क्षमा करना चाहिए। मैकाले के विषय में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं—
(1) मैकाले को भारतीय शिक्षा का अग्रदूत माना जा सकता है। वह पहला अंग्रेज विद्वान था, जिसके विचारों से प्रभावित होकर एक ऐसी सरकारी नीति निर्धारित हुई, जिससे प्राच्य पाश्चात्य- विवाद समाप्त हो गया और आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा की नींव पड़ गयी ।
(2) मैकाले के विवरण-पत्र से भारत के लिए प्राच्य-पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान का द्वार खुल गया, क्योंकि अंग्रेजी भाषा को माध्यम के रूप में स्वीकृत किये जाने पर पाश्चात्य वैज्ञानिक ज्ञान भारतीयों के लिए सुलभ हो गया ।
(3) अंग्रेजी शिक्षा ने भारतीय जनता में समानता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व की भावनाएँ उत्पन्न करके उनमें राजनैतिक जागृति उत्पन्न की दी। यदि भारत में अंग्रेजी शिक्षा क. प्रादुर्भाव न हुआ होता तो भारत में स्वतन्त्रता संग्राम कभी न छिड़ता ।
मैकाले के विवरण-पत्र में कुछ खामियाँ थीं। उसकी सिफारिशों को मान लेने भारतीय जनता पर कुछ दुष्प्रभाव भी पड़े। इसलिए मैकाले की कटु आलोचना भी जाती है।
मैकाले की आलोचना
मैकाले की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-
(1) मैकाले ने विदेशी भाषा के माध्यम से पाश्चात्य सभ्यता को भारत पर थोपने का प्रयत्न किया । इसका सबसे बुरा परिणाम यह हुआ कि हम अंग्रेजी शिक्षा पाकर पाश्चात्य सभ्यता की ओर झुके और अपनी संस्कृति को भुला बैठे ।
(2) विवरण- पत्र में भारतीय भाषाओं का अपमान किया गया। भारत में ऐसी और भी भाषाएँ थीं, जो विकसित और समृद्ध थीं, लेकिन मैकाले को सभी भारतीय भाषाएँ गँवारू और घटिया मालूम होती थीं। यह उसकी भूल थी। मैकाले के इस आरोप के कारण भारतीय भाषाओं का विकास रुक गया और अंग्रेजी भी जनसाधारण की भाषा न बन सकी।
(3) सम्पूर्ण भारतीय साहित्य मैकाले की दृष्टि में निकृष्ट था। मैकाले ने प्राच्य साहित्य का ऐसा अपमान किया जिसे भुलाया नहीं जा सकता। वेद, उपनिषद्, और संस्कृत भाषा का अपार साहित्य उसको तुच्छ मालूम हुआ । सच्चाई तो यह है कि मैकाले सत्रहवीं शताब्दी से पूर्व के भारतीय इतिहास से अनभिज्ञ था। वह हमारे धर्म, दर्शन और कला से पूर्ण अपरिचित था।
(4) मैकाले ने अपने विवरण-पत्र में लिखा था, "हमें भारत में एक ऐसा वर्ग बनाना चाहिए, जो रक्त और वर्ण में भारतीय किन्तु रुचियों, नैतिक आदर्शों और बुद्धि में अंग्रेज हो।" इस बात यही स्पष्ट होता है कि काले भारत में ऐसा वर्ग (बाबू वर्ग) उत्पन्न की करना चाहता था, जो पाश्चात्य सभ्यता का उपासक और ब्रिटिश शासन का भक्त बनकर अंग्रेजी राज्य की जड़ें मजबूत करने में सरकारी मदद कर सके।
(5) मैकाले ने अंग्रेजी शिक्षा का उद्देश्य उच्च वर्ग को शिक्षित करना माना । उसने निस्यन्दन (Filteration Theory) सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार अंग्रेजी शिक्षा केवल उच्च वर्ग के लोगों को दी जानी थी और यह आशा करनी थी कि यहाँ शिक्षा छन-छनकर निम्न वर्ग के लोगों तक पहुँच जायेगी। मैकाले की इस शिक्षा नीति का यह परिणाम हुआ कि शिक्षित वर्ग और जनसाधारण के बीच खाई उत्पन्न हो गयी। शिक्षित वर्ग सरकार के साथ मिलकर सीधी-सादी भारतीय जनता का शोषण करने लगा।
(6) मैकोले ने 1836 ई. में अपने पिता को एक पत्र में अपनी इच्छा प्रकट की कि यदि भारत में उसकी शिक्षा नीति सफल हो जाती थी तो 30 वर्ष के अंदर बंगाल के उच्च घराने में एक भी मूर्तिपूजक शेष नहीं रह जायेगा। इस प्रकार मैकाले का हार्दिक अभिलाषा थी भारत की धार्मिक एकता को नष्ट-भ्रष्ट कर देना, परन्तु उसका यह सपना पूरा न हो सका। फिर भी मैकाले के विवरण-पत्र का भारतीय शिक्षा के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है । अंग्रेजी शिक्षा के कारण ही भारत में राजनैतिक जागृति, वैज्ञानिक चेतना और आर्थिक विचारधाराएँ फैलीं । भारतवासियों ने अंग्रेजी पढ़ी, पाश्चात्य साहित्य का अध्ययन किया,उससे प्रेरणा ली और संघर्ष किया। भले ही सफलता प्राप्त करने में भारतीयों को एक शताब्दी का समय लगा ।
मैकाले का निष्यदन सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन सर्वप्रथम मैकाले ने किया था। इस सिद्धान्त का विकास इस अर्थ में हुआ है कि कुछ लोगों को अंग्रेजी में अच्छी शिक्षा दी जाये ताकि वे अन्नतः जन साधारण को भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षित कर सके।
प्राच्य पाश्चात्य शिक्षा विवाद के साथ-साथ इसी काल में जन शिक्षा एवं उच्च शिक्षा का संघर्ष भी सतत रूप से चला। भारत में शिक्षा के विस्तार के विषय में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी था कि जनता को शिक्षित किया जाये अथवा किसी वर्ग विशेष को उच्च शिक्षित किया जाये । व्यापारियों की कम्पनी होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारतीयों की शिक्षा पर कम-से-कम धन व्यय करना चाहती थी। लार्ड मैकाले जन साधारण को शिक्षा देने के पक्ष में नहीं था उसका विचार था कि उच्च वर्ग का निर्माण अति आवश्यक है जो शिक्षा पाने के बाद हमारे बीच दुभाषिए का कार्य कर सके। 1837 में उसने लिखा है "कि" वर्तमान समय में हमारा उद्देश्य निम्न वर्ग के लोगों को प्रत्यक्ष रूप से शिक्षा देना नहीं है, बल्कि हमारा उद्देश्य ऐसे वर्ग का निर्माण करना है जो अपने देशवासियों में उस शिक्षा का कुछ अंश वितरित कर सके जो हमने उसे दी है।"
इसलिए वह उच्च वर्ग के सम्पन्न लोगों का शिक्षा प्रदान करना चाहता था। उसने यह द्धान्त प्रतिपादित किया कि शिक्षा की व्यवस्था केवल उच्च वर्ग के व्यक्तियों के लिए जाये, जहाँ से वह स्वतः ही धीरे-धीरे छनकर निम्न वर्ग तक पहुँच जायेगी । इस न अथवा निम्नवत छन्नीकरण का सिद्धान्त(Down Word Filteration Theory) कहा जाता है । छनाई से तात्पर्य किसी द्रव का छन-छनकर नीचे जाने से है । शिक्षा के क्षेत्र में निस्यन्दन या छनाई से तात्पर्य समाज के उच्च वर्ग को दी गयी शिक्षा का कालान्तर में निम्न वर्ग तक पहुँचने से है । निस्यन्दन सिद्धान्त मानने वालों का मानना था कि समाज का निम्न वर्ग उच्च वर्ग के व्यवहार का अनुसरण करता है । अतः यदि समाज के उच्च वर्ग को अंग्रेजी साहित्य, विज्ञान तथा रीति-रिवाजों में शिक्षित कर दिया जाये तो कालान्तर में उसके आचरण तथा व्यवहार का अनुसरण करके निम्न वर्ग शिक्षा के प्रकाश से आलोकित हो जायेगा । बम्बई के गवर्नर काउंसिल के सदस्य फ्रांसिस वार्डन ने 1823 में इस सिद्धान्त का समर्थन करते हुए विचार व्यक्त किया कि, बहुत-से व्यक्तियों को थोड़ा-सा ज्ञान देने की अपेक्षा थोड़े से व्यक्तियों को बहुत-सा ज्ञान देना अधिक उत्तम तथा निरापद होगा।
सन् 1830 में अपने एक परिपत्र में कम्पनी के संचालकों ने इस सिद्धान्त का यह कहते हुए समर्थन किया कि शिक्षा की प्रगति तभी सम्भव है जब उच्च वर्ग के उन लोगों को शिक्षा दी जाएँ जिनके पास अवकाश है और जिनका अपने देश के निवासियों पर प्रभाव है । ईसाई मिशनरियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन यह कहते हुए किया कि यदि भारत के उच्च वर्ग के हिन्दुओं अंग्रेजी शिक्षा देकर ईसाई धर्म का अनुयायी बना लिया जाये तब निम्नवर्ग के व्यक्ति उन उदाहरण से प्रभावित होकर स्वयं ही ईसाई धर्म अपना लेंगे।
मैकाले के द्वारा इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करने के निम्नलिखित कारण प्रत होते हैं-
1. कम्पनी के पास जनसाधारण की शिक्षा के लिए आवश्यक धन नहीं था।
2. उच्च वर्ग को शिक्षित करके उन्हें जनसाधारण की शिक्षा का उत्तरदायित्व दिया ज सकता है 1
3. ऐसे उच्च शिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता थी जिन्हें उच्च पदों पर आसीन करके शासन को सुदृढ़ बनाया जा सके ।
4. उच्च वर्ग को पाश्चात्य आचार-विचारों की शिक्षा देकर जनसाधारण को प्रभावित किया जा सके इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए आर्थर पेहयू ने अपनी पुस्तक 'एजूकेशन ऑफ इण्डिया' में लिखा है, "जनसमूह में शिक्षा को ऊपर से नीचे को छन-छनकर पहुँचना है । बूँद-बूँद कर भारतीय जीवन के हिमालय से उपयोगी शिक्षा नीचे की ओर बहती हुई कुछ समय में चौड़ी तथा विशाल धारा में बदलकर शुष्क मैदानों में सिंचाई करे। "
लार्ड मैकाले ने अपने विवरण-पत्र (1835 ई.) में लिखा था कि हमें इस समय ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहिए, जो हमारे आगे उन लाखों व्यक्तियों के मध्य जिन पर हम शासन करते हैं, दो भाषाओं का कार्य करे। हमें इसी वर्ग पर देश की भाषाओं को निश्चित करने का कार्य छोड़ देना चाहिए। अन्त में लार्ड ऑकलैण्ड ने इस सिद्धान्त को स्वीकृति प्रदान की और लिखा, "सरकार को समाज के उच्च वर्गों में उच्च शिक्षा का प्रसार करना चाहिए, जिनके पास अध्ययन हेतु अवकाश है और जिनकी संस्कृति जनता में छनकर पहुँचनी है।"