Rahulwebtech.COM-Online Share Marketing, Internet Tips aur Tricks in Hindii उभरते समाज के प्रमुख मुद्दे -2 - MAJOR ISSUES OF EMERGING SOCIETY IN HINDI

उभरते समाज के प्रमुख मुद्दे -2 - MAJOR ISSUES OF EMERGING SOCIETY IN HINDI

 पर्यावरणीय प्रदूषण एवं संरक्षण (ENVIRONMENTAL POLLUTION
AND PROTECTION)

पर्यावरण (Environment) 

पर्यावरण या वातावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिलकर हुआ है परि + आवरण परि' का अर्थ है- चारों तरफ से और 'आवरण' का आशय है- ढके हुए। इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण शब्द का अर्थ व्यक्ति के चारों ओर जो कुछ भी है, से है। अंग्रेजी भाषा में पर्यावरण के लिए एनवायरमेण्ट (Environment) शब्द का प्रयोग किया जाता है जो दो शब्दों से मिलकर बना है एनवायर (Envior) + मेण्ट (ment) एनवायर का अर्थ है घेरना या आवृत्त (Encircle) करना तथा मेण्ट' का अर्थ हुआ चारों ओर (All around) । अतः एनवायरमेण्ट (Environment) का शाब्दिक अर्थ हुआ चारों ओर से घेरना' । पर्यावरण वह है जो मानव को चारों ओर से घेरे रहता है तथा उसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रकार से प्रभावित भी करता है।

इ. जे. रॉस के अनुसार, पर्यावरण एक वाह्य शक्ति है, जो मानव को प्रभावित करती है।

उभरते समाज के प्रमुख मुद्दे -2 - MAJOR ISSUES OF EMERGING SOCIETY IN HINDI

अनास्टासी के अनुसार, 'मानव के वंशानुक्रम के अतिरिक्त सभी को पर्यावरण कहा जाता है, जो उसे प्रभावित करता है।" एच. फिटिंग के अनुसार, पर्यावरण एक जीव के पारिस्थितिक तत्त्वों या कारकों का योग है।"

पर्यावरणीय प्रदूषण (Environmental Pollution) 

कभी-कभी वातावरण में एक या अनेक घटकों की प्रतिशत मात्रा किसी कारणवश या तो कम हो जाती है अथवा बढ़ जाती है या वातावरण में अन्य हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है, जिसके कारण पर्यावरण प्रदूषण हो जाता है। यह प्रदूषित पर्यावरण जीवधारियों के लिए अत्यधिक हानिकारक होता है। यह हवा, पानी, मिट्टी, वायुमंडल आदि को प्रभावित करता है। इसे ही 'पर्यावरण प्रदूषण' कहते हैं।

'इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण, वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विशेषताओं में होने वाला वह अवांछनीय

परिवर्तन है, जो मानव एवं उसके लिए लाभकारी तथा अन्य जन्तुओं, पेड़-पौधों, औद्योगिक एवं दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुँचाता है।'

पर्यावरण प्रदूषण के कारण पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले प्रमुख पदार्थ हैं-

(1) जमा हुए पदार्थ जैसे- धुआं, धूल, ग्रिट आदि । 

(2) रासायनिक पदार्थ जैसे- डिटर्जेंट्स, आर्सीन्स, हाइड्रोजन,फ्लोराइड्स, फॉस्जीन आदि ।

(3) धातुएँ जैसे- लोहा, पारा, जिंक, सीसा ।

(4) गैसें जैसे- कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, अमोनिया, क्लोरीन, फ्लोरीन आदि ।

(5) उर्वरक जैसे- यूरिया, पोटाश एवं अन्य

(6) वाहित मल जैसे- गंदा पानी । 

(7) ध्वनि ।

(8) ऊष्मा ।

(9) रेडियोएक्टिव पदार्थ

प्रदूषण के कारक (Factors of Pollution) 

प्रदूषण के दो मूल कारक है-

(1) विश्व की बढ़ती जनसंख्या - विश्व की जनसंख्या इतनी तीव्र गति से बढ़ रही है जिसे देखकर ऐसा कहा जा रहा है कि आने वाले समय में मानव को इस पृथ्वी पर रहने के लिए स्थान ही न मिल पाए। विश्व में प्रतिदिन 2 लाख बच्चे जन्म लेते हैं।

वर्तमान में विश्व की जनसंख्या 7 अरब के लगभग है तथा अनुमान लगाया जाता है कि सन् 2080 तक यह 15 अरब हो जाएगी। इतने लोगों को पृथ्वी पर बसाना, उनके लिए जीवन सामग्री जुटाना बहुत बड़ी समस्या होगी।

(2) औद्योगिक विकास-गत 50 वर्षों में औद्योगीकरण का प्रभाव इतनी तीव्र गति से बढ़ा है कि पर्यावरण का रूप ही परिवर्तित हो गया हैं। मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कई कारखाने खोले हैं एवं कारखानों के अपशिष्ट पदार्थ जल को प्रदूषित कर रहे हैं।

वाहनों का प्रयोग इतना बढ़ रहा है कि इनसे निकलने वाले धुएं से वायु प्रदूषण बढ़ रहा है। मानव के कूड़ा-कचड़ा, सड़े-गले पदार्थों को घर के बाहर फेंकने से भूमि प्रदूषण बढ़ रहा है।

वायु प्रदूषण (Air Pollution) 

वायु के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा कोई भी अवांछित परिवर्तन जिसके द्वारा स्वयं मनुष्य के जीवन या अन्य जीवों की जीवन जीने की परिस्थितियों या सांस्कृतिक सम्पति को हानि पहुंचती है अथवा प्राकृतिक सम्पदा नष्ट हो जाती है ही वायु प्रदूषण (Air Pollution) कहते हैं। साधारण भाषा में, जब वायुमण्डल में विविध प्रकार के प्रदूषक जैसे धूल, गैस दुर्गन्ध भय बाप की इतनी अधिक मात्रा एवं लम्बी अवधि तक उपस्थित हो जाए जिससे वायु के नैसर्गिक गुण ही परिवर्तित हो जाए तथा मानव स्वास्थ्य जीवन की मुख एवं सुविधाओं तथा सम्पत्ति को हानि होने लगे तथा जीवन की गुणवत्ता में बाधा पहुँचने लगे तथा सम्पूर्ण पर्यावरण प्रभावित होने लगे तो उसे वायु प्रदूषण कहतें हैं ।

मृदा प्रदूषण (Soil Pollution) 

मृदा, पर्यावरण का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। जिस मृदा में कैल्शियम, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम आदि प्रमुख तच्च उपलब्ध होते हैं, यह उपजाऊ मृदा (Fertile Soil) कहलाती है। इनके अतिरिक्त कुछ गौण तत्त्वों की उपस्थिति से मृदा की उर्वरक क्षमता बढ़ जाती है। ये तत्त्व है- मँगनीज, सल्फेट, आयोडीन, तांबा, जस्ता आदि ऑक्सीजन, सिलिकॉन, एल्यूमिनियम तथा लोहा भी मृदा में खनिज तत्त्व के रूप में पाए जाते हैं। ये सभी खनिज पदार्थ एक निश्चित अनुपात में मिलकर मृदा की उर्वरता निर्धारित करते हैं। जब मृदा के रासायनिक संघटन (Chemical Composition) या भौतिक स्वरूप में बाधा आती है तो मृदा की उत्पादकता पर बुरा असर पड़ता है। अधिक समय तक प्रभावी रहने पर यह 'मृदा प्रदूषण (Soil Pollution) को जन्म देती है । मृदा प्रदूषण वास्तव में मानव के हस्तक्षेप के कारण होता है परन्तु फिर भी प्राकृतिक रूप से मृदा की उत्पादकता चक्रीय प्रक्रिया (Cyclic Process) के फलस्वरूप बनी रहती है।

जल प्रदूषण (Water Pollution)

पारिस्थितिकी के निर्माण में जल एक आधारभूत कारक है। औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप हमारे जीवन का अस्तित्त्व संकट में है क्योंकि जल जैसे मूलाधार का तेजी से प्रदूषित होना निरन्तर जारी है। वह जल जिसमें अनेक प्रकार के खनिज, कार्बनिक तथा अकार्बनिक पदार्थ एवं गैसें एक निश्चित अनुपात से अधिक मात्रा में घुल जाते हैं, 'प्रदूषित जल' (Polluted Water) कहलाते हैं तथा प्रदूषित होने की प्रक्रिया 'जल प्रदूषण' (Water Pollution) कहलाती है।

ग्रोवका (Growaka) के अनुसार, "जल प्रदूषण का अर्थ मनुष्य द्वारा बहती नदी में ऊर्जा या ऐसे पदार्थ का निस्तारण है, जिससे जल के गुण में ास हो जाए ।"

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जल के नैसर्गिक गुणों में किसी बाह्य पदार्थ के मिलने से जब परिवर्तन आता है और यह परिवर्तन जीवों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है तो यह जल प्रदूषित (Water Polluted) कहलाता है।

पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य (Objectives of Environmental Protection) 

पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) मानवीय गतिविधियों को कम करना जिससे पर्यावरण की गुणवत्ता को क्षति न पहुँचे।

(2) पर्यावरण प्रदूषण को कम करना । 

(3) भावी पीढ़ी हेतु पर्यावरण संरक्षण तथा उनका उचित उपयोग करना।

(4) मानव व प्रकृति के बीच स्वस्थ संवेदनशील समायोजन स्थापित करना । 

(5) मानव समाज के सामाजिक व आर्थिक विकास को उन्नत बनाना ।

पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व (ortance of Environmental Protection)

(1) वर्तमान में पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता पर्यावरण प्रदूषण को रोकने तथा निरन्तर बढ़ती समस्याओं पर नियन्त्रण हेतु है क्योंकि अत्यधिक पर्यावरण दोहन मानव अस्तित्त्व एवं सभ्यता के विकास हेतु खतरा है। अतः इन पर नियन्त्रण लगाकर पर्यावरण संरक्षण करने की नितान्त आवश्यकता है। 

(2) पर्यावरण संरक्षण द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग के सम्बन्ध में लोगों को जागरूक किया जाता है। 

(3) प्रकृति प्रायः क्रमिक रूप में क्रियाशील रहती है जिससे पर्यावरण सन्तुलन बना रहता है परन्तु मानव इनमें हस्तक्षेप करके निजी स्वार्थ हेतु इन प्राकृतिक संसाधनों का निरन्तर दोहन करता जा रहा है जिससे प्रायः बाढ़, सूखा, भूमि क्षरण जैसे- गैसों की विषक्तता आदि बढ़ती जा रही है। इन वृद्धिशील समस्याओं को रोककर पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता है।

(4) फसलों की उर्वरता बढ़ाने हेतु खेतों में विभिन्न रासायनिक पदार्थों का उपयोग मृदा प्रदूषण का प्रमुख कारण होता है। जिससे मिट्टी की उर्वरा शक्ति (उपजाऊपन) कम हो जाती है, ये पदार्थ जल में मिलकर जल को भी प्रदूषित कर देते है। अतः इन समस्याओं के निदान हेतु पर्यावरण संरक्षण की अति आवश्यकता है। लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करके पर्यावरण संरक्षण किया जा सकता हैं।

(5) निरन्तर बढ़ते औद्योगीकरण के फलस्वरूप वायुमण्डल में कार्बन-डाई-आक्साइड तथा अन्य विषैली गैसों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। इन गैसों के बढ़ने से विभिन्न गम्भीर रोग एवं सांस सम्बन्धी बीमारियों की निरन्तर वृद्धि हो रही है अतः पर्यावरण में इन गैसों का सन्तुलन बनाए रखने तथा ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने हेतु पर्यावरण संरक्षण तथा निरन्तर वृक्षारोपण के लिए लोगों को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है।

(6) पर्यावरण सन्तुलन बनाए रखने तथा मानव एवं जैवमण्डल की रक्षा हेतु पर्यावरण संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।

वर्तमान समय में आज निरन्तर विकास की तीव्रता बनाए रखते हुए पर्यावरण संरक्षण की भी आवश्यकता है क्योंकि उत्तम विकास पर्यावरण पर ही निर्भर है। अतः हमें पर्यावरण संरक्षण के माध्यम से इसे बचाना चाहिए।

जल संरक्षण (WATER CONSERVATION)

वर्षा जल संचयन (Rain Water Harvesting)

धरती पर बारिश की प्रत्येक बूँद को मोती के समान एकत्र किया जाना चाहिए। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वर्षा जल का संचयन प्राकृतिक जलाशयों तथा मानव निर्मित टैकों में किया जाता है तथा भविष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयोग किया जाता है।

वर्षा जल संचयन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हम वर्षा के पानी को आवश्यकता पड़ने पर उपयोग कर सकते हैं। वर्षा के पानी को एक निर्धारित किए हुए स्थान पर जमा करके हम वर्षा जल संचयन कर सकते हैं। इसको करने के लिए कई प्रकार के तरीके है जिनकी सहायता से हम वर्षा जल संचयन कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में ना सिर्फ वर्षा जल का संचयन करना है बल्कि साथ ही उसे स्वच्छ बनाना भी शामिल होता है।

वर्षा जल संचयन कोई आधुनिक तकनीक नहीं हैं यह कई वर्षों से उपयोग में लाया जा रहा है परंतु धीरे-धीरे इसमें भी नई तकनीकी का उपयोग किया जा रहा है ताकि वर्षा जल संचयन को आसान एवं बेहतर बनाया जा सके।

ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन (GLOBAL WARMING AND CLIMATIC CHANGE)

ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) 

जब वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा में वृद्धि होती है तब पार्थिव विकिरण की अवशोषण दर बढ़ जाती है जिससे वायुमण्डल के औसत तापमान में अधिक वृद्धि होती है, यही स्थिति 'ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) कहलाती है। अन्य शब्दों में महासागर बर्फ की चोटी सहित पूरा पर्यावरण और धरती की सतह का नियमित गर्म होने की प्रक्रिया को ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक तौर पर वातावरणीय तापमान में वृद्धि देखी गई है। सम्पूर्ण विश्व के पर्यावरणविद् लम्बे समय से चिंतित ह कि कार्बन-डाई ऑक्साइड तथा क्लोरो कार्बन समूह की गैसों के निरंतर उत्सर्जन से ग्रीन हाउस प्रभाव के चलते दिनों-दिन धरती का तापमान बढ़ता जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय प्रदूषण नियंत्रण आयोग (International Pollution Control Commission, IPCC) की 5वीं रिपोर्ट 2014 के अनुसार, सदी के अन्त तक विश्व के औसत तापमान में 038°C से 4.8°C तक वृद्धि संभव है और यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तब वैश्विक जलवायु में स्थानिक, प्रादेशिक एवं अक्षांशीय स्तर पर इतना परिवर्तन हो जाएगा कि जैवीय संकट उत्पन्न हो जाएगा।

आज वैश्विक तापमान (Global Warming) की समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है तथा जलवायु परिवर्तन का मूल कारण भी बनी है। ग्लोबल वार्मिंग के लिए वैश्विक तापन'' तथा भू-तापन आदि शब्दों का प्रयोग भी किया जाता है। पर्यावरणीय सुरक्षा एजेंसी के अनुसार, पिछले शताब्दी में 1.4 डिग्री फॉरेनहाईट (0.8 डिग्री सेल्सियस) के लगभग धरती के औसत तापमान में वृद्धि हुई है। ऐसा भी आंकलन किया गया है। कि अगली शताब्दी तक 2 से 11.5 डिग्री की वृद्धि हो सकती है।

वार्मिंग के कारण (Causes of Global Warming)

(1) ग्लोबल वार्निंग के बहुत सारे कारण है, इसका मुख्य कारण ग्रीनहाउस गैस है जो कुछ प्राकृतिक प्रक्रियाओं से तो कुछ मानवीय गतिविधियों से उत्पन्न हुई है। जनसंख्या विस्फोट, अर्थव्यवस्था और ऊर्जा के प्रयोग के कारण 20वीं सदी में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ गई है। वातावरण में कुछ ग्रीनहाउस गैसों के निकलने का कारण औद्योगिक क्रियाएं है, क्योंकि लगभग प्रत्येक आवश्यकता को पूरा करने के लिए औद्योगीकरण की जरूरत है।

(2) वैश्विक तापमान मुख्यतः मानव जनित कारणों से सम्बन्धित है जिसमें औद्योगीकरण, नगरीकरण, तापीय विद्युत उत्पादन, जैविक ईंधन का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दहन, खनन आधुनिक उत्पादन तकनीक तथा वन विनाश जैसे कारक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।

(3) ओजोन परत का काम धरती को नुकसानदायक किरणों से बचाना है। जबकि, धरती के सतह की ग्लोबल वार्मिंग बढ़ना इस बात का संकेत है कि ओजोन परत में क्षरण हो रहा है। हानिकारक अल्ट्रा बॉइलेट सूरज की किरणे जीवमंडल में प्रवेश कर जाती है और ग्रीनहाउस गैसों के द्वारा उसे सोख लिया जाता है जिससे अंततः ग्लोबल वार्मिंग में बढोत्तरी होती है।

(4) कई कारणों से विभिन्न प्रकार की ग्रीन हाउस गैसें और ऐसी गैसें उत्सर्जित होती हैं जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि करती हैं। कार्बन-डाई-ऑक्साइड (CO2) सर्वप्रमुख गैस है जिसके लिए सर्वाधिक उत्तरदायी कारक जीवाश्म ईंधनों का दहन तथा तापीय विद्युत उत्पादन है। इसके अतिरिक्त विभिन्न औद्योगिक प्रक्रियाओं से मीथेन (CH), कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2). क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC), सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2), सल्फर हेक्सा फ्लोराइड (SF) जैसी विभिन्न हानिकारक गैसों तथा रसायनों का उत्सर्जन होता है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिए उत्तरदायी है।

(5) प्राकृतिक रूप से ज्वालामुखी विस्फोट, दलदली भूमि, धान की खेती तथा जुगाली करने वाले जानवरों से मीथेन (CH) का उत्सर्जन जैसे कई कारक ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव में वृद्धि करते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव (III-Effects of Global Warming)

(1) विश्व जलवायु एवं मौसमी दशाओं परिवर्तन होना । 

(2) तापीय वृद्धि से सूखे की समस्या (Problem of Draught) में वृद्धि होना ।

(3) चक्रवातीय दशाओं (Cyclonic Conditions) में परिवर्तन होना । 

(4) वायुमण्डलीय परिसंचरण (Atmospheric Circulation) का बाधित होना ।

(5) समुद्री जलस्तर में वृद्धि होना एवं बर्फ का पिघलना । 

(6) कई द्वीपों एवं तटीय प्रदेश का जलाक्रान्त (Water Logging) होना।

(7) मानव का विस्थापन तथा पुनर्वास (Rehabilitation) की समस्या का बढ़ना ।

(8) मृदा की उर्वरता में कमी (Desertification) में वृद्धि होना।

(9) खाद्य संकट, जैव-विविधता में हास (Loss Biodiversity) और जैवीय संकट की उत्पत्ति होना । 

(10) जैव संसाधनों (Biological Resources) के अभाव में होना। 

(11) स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ व कई खतरनाक वायरस की उत्पत्ति और नवीन बीमारियाँ उत्पन्न होना । 

(12) अनावृष्टि (No Rainfall), अतिवृष्टि (Excessive Rainfall) एवं बाढ़ की समस्या का बढ़ना ।

अतः स्पष्ट है कि ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अन्य कई प्रकार की समस्याओं की जननी है इसलिए इसे नियन्त्रित किया जाना चाहिए।

जलवायु परिवर्तन (Climate Change)

जलवायु परिवर्तन औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में बदलाव को कहते हैं। यह बदलाव विस्तारित अवधि (दशकों से लाखों वर्षों तक) का हो सकता है। जलवायु परिवर्तन औसत मौसम की स्थिति में परिवर्तन या लम्बी अवधि के औसत स्थितियों के सन्दर्भ में, मौसम के समय में भिन्नता को भी स्पष्ट करता है। जलवायु परिवर्तन जैविक क्रियाओं जैसे- प्लेट टेक्टॉनिक्स सौर विकिरण में भिन्नता एवं ज्वालामुखी विस्फोट आदि से अत्यधिक प्रभावित होता है। कुछ मानवीय गतिविधियों को जलवायु परिवर्तन के प्राथमिक कारणों के रूप में पहचाना गया है, जिन्हें अक्सर ग्लोबल वार्मिंग के रूप में जाना जाता है।

वैज्ञानिक सक्रिय रूप से अवलोकन एवं सैद्धान्तिक मॉडल का उपयोग जलवायु परिवर्तन के पूर्व एवं भविष्य के अन्तर को समझने के लिए करते हैं। एक जलवायु रिकॉर्ड जिसमें पृथ्वी का अतीत, बोरहोल (Borehole) प्रोफाइल, बर्फ का गहरा जमाव जीव-जन्तुओं का रिकॉर्ड, हिमनद, आदि को रखा गया है।

जलवायु परिवर्तन को कम करने के उपाय (Measures to Reduce Climate Change)

(1) अवांछित गैसों के उत्सर्जन की पराकाष्ठा को 2025 तक सीमित किया जाए और उसके बाद यथासम्भव तेजी से शून्य स्तर तक लाने के लिए उसमें गिरावट सुनिश्चित की जाए।

(2) विकसित देशों को 2020 तक अपने 1990 के कॉर्बन उत्सर्जन स्तर में 40% कटौती अवश्य कर देनी चाहिए। 

(3) विकासशील देशों को औद्योगीकृत राष्ट्रों के सहयोग से 2020 तक अपने उत्सर्जन में 15 से 30% तक की कटौती अवश्य करनी चाहिए।

(4) जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नवीकरणीय ऊर्जा के संसाधन को बढ़ावा दिया जाए।

जलवायु परिवर्तन पर आई.पी.सी.सी. रिपोर्ट (IPCC Report on Climate Change) 

संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने 27 सितम्बर, 2013 की भूमण्डलीय ताप वृद्धि पर नीति निर्धारकों के लिए पाचंवीं एसेसमेंट रिपोर्ट का सारांश स्टॉकहोम में जारी किया। आई. पी. सी. सी. की पूरी रिपोर्ट 30 सितम्बर, 2013 को जारी हुई। रिपोर्ट में पहली बार वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर दावे के साथ कहा गया है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान एवं जलवायु परिवर्तन के लिए कोई प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि स्वयं मानव की गतिविधियाँ उत्तरदायी हैं। रिपोर्ट में गर्म हवाओं के दौर चलने, बाढ़ एवं सूखे की घटनाओं की पुनरावृत्ति तेज होने की आशंका जताई गयी है। ग्लेशियरों से बर्फ पिघलने की गति भी तेज हुई हैं। पैनल की इस पांचवी रिपोर्ट में हालात के बिगड़ने के पीछे मानव को बहुत हद तक जिम्मेदार माना गया है, जबकि आई. पी. सी. सी. की चौथी रिपोर्ट में इसके लिए मानव को 'बहुत सीमा तक जिम्मेदार माना गया था। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1951 से वर्ष 2010 के बीच तापमान में हुई वृद्धि के लिए मानव की गतिविधियाँ जिम्मेदार हैं। आई. पी. सी. सी की पांचवी रिपोर्ट को 195 देशों के वैज्ञानिकों ने विचार-विमर्श के बाद अंतिम रूप दिया है।

लैंगिक असमानता (GENDER INEQUALITY)

साधारणतया लैंगिक असमानता से हमारा तात्पर्य लड़का और लड़की अथवा स्त्री व पुरुष में पाई जाने वाली असमानता (समानता की कमी या अभाव) से लगाया जाता है। अतः लैंगिक असमानता से आशय एक लिंग की तुलना में दूसरे लिंग के साथ सामाजिक रूप से अधिक अनुकूल या अधिक प्रतिकूल व्यवहार करने से है। लिंग के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव या असमानता के व्यवहार को लिंग असमानता कहते हैं। हमारे देश भारत में स्त्री एवं पुरुष के अधिकारों में प्रायः अन्तर पाया जाता है। लैंगिक के आधार पर दोनों में परस्पर भेद किया जाता है, यही लिंग असमानता है। इस प्रकार लैंगिक असमानता, स्त्री-पुरुष विभेद के सामाजिक संगठन का फल या स्त्री-पुरुष के मध्य असमान सम्बन्धों की सामाजिक व्यवस्था है, जो स्त्रियों की हीन भावना की धारणा को विकसित करती है।

लैंगिक असमानता के क्षेत्र (Areas of Gender Inequality)

(1) घर में लैंगिक भेदभाव - भारतीय समाज में पुरुषों की प्रधानता है। इस समाज की संकीर्ण विचारधारा जैसे-पुत्र मोक्ष दाता, माता-पिता की वृद्धावस्था का सहारा, घर का चिराग, वंश को आगे बढ़ाने वाला माना जाता है जबकि पुत्री का जन्म एक दायित्व एवं कर्ज समझा जाता है। अतः है दोनों के जन्म से ही भेदभाव प्रारम्भ हो जाता है। दोनों के थोड़ा बड़े होने पर उनके कार्य क्षेत्र एवं खेल अलग-अलग कर दिए जाते हैं।

(2) शिक्षा में असमानता-महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों की साक्षरता दर की तुलना में कम है। उच्च शिक्षा की दर तो और भी निम्न है। प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर लड़कियों की पढ़ाई मध्य में ही छोड़ देने की दर ऊँची है क्योंकि लड़कियाँ घरेलू कामकाज में सहायता देती हैं।

(3) रोजगार में असमानता-रोजगार के क्षेत्र में भी असमानता है संगठित उद्योगों में कार्य करने वाली महिलाएँ अधिकतर निम्न स्तर पर ही कार्य कर रही है। रोजगार के अभी भी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ पर महिलाओं का प्रवेश निषेध है। जबकि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ महिलाओं को ही प्राथमिकता दी जाती है।

(4) स्वास्थ्य एवं पोषण सम्बन्धी असमानता-सामाजिक भेदभाव के कारण बचपन से ही उन्हें कम पौष्टिक भोजन प्राप्त होता है। महिलाएँ स्वयं भी अपने स्वास्थ्य तथा शरीर के प्रति उदासीन रहती हैं तथा कम ध्यान देती हैं।

(5) यौन शोषण-निर्धनता, अशिक्षा, तथा अन्य भौतिक उद्देश्यों की पूर्ति के विरोधाभासी कारणों के चलते महिलाएँ कई प्रकार से शोषण का शिकार हो जाती हैं। इससे न केवल उनका वैयक्तिक विघटन होता है बल्कि समाज का भी नैतिक पतन होता है।

लैंगिक असमानता के कारण (Causes of Gender Inequality)

लिंग असमानता के कारण निम्नलिखित हैं- 

(1) महिलाओं को सामाजिक स्तरीकरण में निचला स्थान प्राप्त होना लैंगिक असमानता का प्रमुख कारण है।

(2) लैंगिक असमानता की प्रमुख वजह जटिल सामाजिक संरचना भी है। पितृसत्तात्मक संरचना के आधार पर समाज ने पुरुषों को ज्यादा महत्त्वपूर्ण कार्य प्रदान किए जिसके कारण महिलाओं को कम महत्त्व प्रदान किया गया।

(3) पुरुषों से सम्बन्धित व्यवहारों व कार्यों को समाज विशेष रूप से परिभाषित करता है और इन्हीं व्यवहारों व कार्यों की अपेक्षा भी करता है। समाज की इस जटिल अपेक्षा को लैंगिक रूढिवादिता कहा जाता है। लैंगिक रूढ़िवादिता महिलाओं को सभी क्षेत्रों में परिसीमन करता है। इस कारण भी लैंगिक असमानता में वृद्धि होती है।

लैंगिक असमानता के दुष्प्रभाव ( III-Effects of Gender Inequality) 

लैंगिक असमानता के कारण भारत में निम्नलिखित दुष्प्रभाव दिखाई देते हैं-

(1) राष्ट्रीय एकता के मार्ग में लैंगिक असमानता बहुत बड़ी बाधा है क्योंकि जब तक हम लिंग सम्बन्धी असमानता को भुलाएँगे नहीं तब तक हम सब एक नहीं हो सकेंगे जिसके परिणामस्वरूप देश पूरी तरह से उन्नति नहीं कर सकेगा।

(2) हम सभी जानते हैं कि लोकतन्त्र समानता, भाईचारे, न्याय तथा स्वतन्त्रता जैसे मूल्यों पर केन्द्रित है किन्तु लिंग असमानता के कारण ये मूल्य कदापि अपना प्रभाव नहीं दिखा सकते हैं।

(3) राष्ट्रीय विकास से अभिप्राय देश या राष्ट्र के सर्वागीण विकास से लगाया जाता है जबकि लिंग असमानता के कारण देश के कुछ विशेष वर्गों का ही विकास हो पाता है। अतः लिंग असमानता देश के विकास में बहुत बड़ी बाधा है।

(4) इसी असमानता के कारण प्रायः अनेक अभिभावक अपने बालकों में भेद करने लगते हैं और लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में बाधक बन जाते हैं। बालिकाएँ घर पर ही रहकर कार्य करती हैं अतः शिक्षा के सार्वभौमीकरण में यह असमानता बड़ी बाधक है।

जनसंचार माध्यमों की भूमिका (ROLE OF MASS MEDIA)

जनसंचार (Mass Media) 

जनसंचार को अंग्रेजी भाषा में Mass Media कहते हैं, जिसका अभिप्राय बिखरी हुई जनता तक संचार माध्यमों की मदद से सूचना को पहुँचाना है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 19 वीं सदी के तीसरे दशक के अंतिम दौर में संदेश के लिए किया गया। समाचार पत्र, टेलीविजन, रेडियो सिनेमा केवल इंटरनेट वेब पोर्टल्स इत्यादि अत्याधुनिक संचार माध्यम है। जनसंचार का अर्थ विशाल जनसमूह के साथ संचार करने से है। दूसरे शब्दों में जनसवार वह प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत संदेशों को जनमाध्यमों की सहायता से एक-दूसरे क किया जाता है।

मीडिया अर्थात् मीडियम या माध्यम मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसी से मीडिया के महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। समाज में मीडिया की भूमिका संवादवाहक की होती है। यह समाज के विभिन्न वर्गों, सत्ता केन्द्रों, व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है। जॉर्ज ए. मिलर के अनुसार, 'जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पहुंचाना है।"

डी.एस. मेहता के अनुसार, जनसंचार का अर्थ जनसंचार माध्यमों जैसे रेडियो, टेलीविजन, प्रेस और चलचित्र द्वारा सूचना, विचार और मनोरंजन का प्रचार-प्रसार करना है।'

जनसंचार माध्यमों की आवश्यकता (Need of Mass Media)

(1) सामाजिक दृष्टि से जन सामान्य में जागरूकता उत्पन्न करने के लिए।

(2) सुदूर क्षेत्रों तक शीघ्रातिशीघ्र सूचनाओं को पहुँचाने के लिए।

(3) संचार माध्यमों के द्वारा एक ही समय में विशाल जनसमूह को शिक्षित करने के लिए। 

(4) व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने के लिए।

(5) मानवीय सम्बन्ध प्रगाढ़ करने के लिए ताकि मानव सम्पूर्ण विश्व की प्रगति में सहायता करने में सक्षम हो सके। 

(6) दिन-प्रतिदिन की देश-विदेश की घटनाओं से जनसामान्य को अवगत कराकर उन्हें देश-विदेश से जोड़े रखने के लिए।।

(7) मनोरंजन प्रदान करने के लिए।

जनसंचार के साधन (Means of Mass Communication)  

जनसंचार के साधनों को दो भागों में बाँटते है-

(1) प्रिंट मीडिया / मुद्रित सामग्री (Print Media ) - विभिन्न दूरस्थ शिक्षा संस्थाएँ अपने कोर्स के लिए विभिन्न औपचारिक संस्थाओं की पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा नवीन मुद्रित सामग्री तैयार करके इनका प्रयोग करती हैं। मुद्रित सामग्री विशेषतः छात्राओं एवं पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं के अनुरूप विभिन्न विषय विशेषज्ञों के माध्यम से तैयार कराई जाती है। चूँकि इसमें शिक्षिकाओं एवं विद्यार्थियों के मध्य परस्पर कोई सम्पर्क नहीं होता है। अतः मुद्रित सामग्री का इस प्रकार निर्माण किया जाता है जिससे प्रत्येक विद्यार्थी स्व-अध्ययन करके सफलता प्राप्त कर सकें।

प्रिंट मीडिया के प्रमुख साधन निम्न हैं- 


(i) समाचार-पत्र (Newspaper),

(ii) पत्रिकाएं (Magazines), 

(iii) पुस्तक एवं अध्ययन सामग्री, आदि (Books Reading Material, etc.) ।

(2) इलेक्ट्रॉनिक मीडिया (Electronic Media) - आधुनिक संचार युग में जन माध्यमों ने इलेक्ट्रॉनिक तकनीक को अपनाकर अपना प्रभाव क्षेत्र विस्तृत किया है। रेडिया इनमें पहला श्रव्य माध्यम है जिसमें इलेक्ट्रॉनिक तकनीक का प्रयोग सर्वप्रथम हुआ। ध्वनि तरंगों के माध्यम से दूर दराज के क्षेत्रों में सूचना समाचारों का प्रसारण रेडियो के माध्यम से ही सम्भव हो पाया है। इस माध्यम से समाज में एक नई सूचना क्रान्ति आई है। मुद्रित माध्यमों की पहुँच सीमित क्षेत्र तक ही थी। वह केवल शिक्षित लोगों तक ही सीमित था किन्तु इलेक्ट्रॉनिक माध्यम साक्षर तथा निरक्षर दोनों को लाभान्वित कर रहा है।

मैकब्राइट के अनुसार, "विकासशील देशों में रेडियो ही वास्तविक जनमाध्यम का रूप है एवं जनसंख्या के एक बड़े अनुपात पर इसकी पकड़ है। दूसरा कोई ऐसा बड़ा माध्यम नहीं है जो सूचना, शिक्षा, संस्कृति और मनोरंजन के रूप में उस कुशलता के साथ पहुँचने की क्षमता रखता हो।" इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रमुख साधन निम्न हैं- 

(i) टेलीविजन (Television),

(ii) रेडियो (Radio),

(iii) टेपरिकार्डर (Taperecorder),

(iv) वीडियो टेप (Video Tape) एवं v) न्यूज चैनल (News Channel) आदि ।

जनसंचार का बहुआयामी Dimensional Impact of Mass Media) 

प्रभाव क्रो एवं क्रो के अनुसार बढ़ते बालक वांछित और अवांछित कार्यों में अधिक भेद नहीं करता है। प्रायः वो बिना कोई उचित कारण जाने ही कार्य करता है जिनमें उसे आनन्द की अनुभूति होती है। आज लगभग प्रत्येक किशोर बालक इस माध्यम से जुड़ा हुआ है। तकनीकी ज्ञान के बढ़ते प्रयोग ने आज आभासी सभ्यता को जन्म दिया है। वर्तमान में भले ही लोग आपस में एक दूसरे को जानें या नहीं परन्तु सामाजिक मीडिया से सम्पर्क में रहते हैं। इस प्रकार सामाजिक मीडिया ने सामाजिक सम्बन्धों की नई परिभाषा को जन्म दिया है। 

मीडिया का सकारात्मक प्रभाव (Positive Impact of Media) 

(1) बढ़ते बालकों एवं किशोरों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बढ़ते बालकों एवं किशोरों की अनेक ऐसी सामाजिक आवश्यकताएँ तथा क्रियाकलाप होते हैं जिसे वह मीडिया के द्वारा पूरा कर लेते हैं, यथा-साथियों एवं परिवार के सम्पर्क में रहना, नए साथी बनाना, विचारों तथा चित्रों का आदान प्रदान करना आदि ।

(2) बढ़ते बालकों एवं किशोरों के स्वास्थ्य से सम्बन्धित विभिन्न सूचनाएँ ऑन-लाइन सहजता से उपलब्ध हो जाती हैं. जैसे- तनाव नियन्त्रण, हताशा के लक्षण, यौन सम्बन्धी जानकारी आदि। ऑन-लाइन प्राप्त इन सूचनाओं को किशोर ने ठीक से समझा है या नहीं अथवा इन प्राप्त सूचनाओं का वह गलत उपयोग तो नहीं कर रहा है। इस पर अभिभावकों द्वारा ध्यान देना आवश्यक है ताकि बालक सूचनाओं के गलत प्रयोग से बच सकें।

(3) वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य ही बालक एवं किशोर का बहुमुखी विकास करना है। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बालकों एवं किशोरों को अक्सर इस प्रकार का गृहकार्य दिया जाता है जिसको पूर्ण करने के लिए इन्टरनेट का प्रयोग करते हैं, तथा प्रदत्त कार्य के सन्दर्भ में मीडिया के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। वर्तमान में ऐसे अनेक शिक्षण संस्थान हैं जो ब्लॉग को शिक्षण उपकरण के रूप में प्रयोग करते हैं।

मीडिया का नकारात्मक प्रभाव (Negative Impact of Media) 

मीडिया के कुछ नकारात्मक प्रभावों का वर्णन इस प्रकार है- 

(1) बहुत से बालक एवं किशोर फोन या इन्टरनेट का प्रयोग करके यौन सम्बन्धी समाचार तथा तस्वीरे दूसरों को भेज देते हैं या यूँ कहें कि समाज में फैला देते हैं जिसके कारण कभी-कभी वे अपराध के घेरे में आ जाते हैं। ऐसे बालक व किशोर माता-पिता की शर्मिन्दगी का कारण बनते हैं तथा विद्यालय में अपमानित होते हैं।

(2) विभिन्न प्रकार के शोध अध्ययनों से पता चला है कि यदि बालक तथा किशोर सोशल साइट पर बहुत अधिक समय बिताते हैं तो उनमें अजीब से उदासी के लक्षण दिखाई देने लगते है। वह हर समय अपने साथियों के सम्पर्क में रहना पसन्द करते हैं। अधिक समय तक ऑनलाइन रहने के कारण वे सामाजिक अलगाव की समस्या में फँस जाते हैं ।

(3) वर्तमान में अक्सर इस प्रकार की घटनाएँ देखने व सुनने को मिल जाती है कि किशोर साइबर दबंगई कर रहे हैं अथवा ऑनलाइन दूसरों को प्रताड़ित कर रहे हैं। इससे लोगों में हताशा, चिन्ता, अकेलापन एवं आत्महत्या जैसी घटनाएँ सामने आ रही हैं।




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