गद्य व पद्य के अंशों का शुद्ध उच्चारण - Gadya Wa Padya Ke Anshon Ka Shudhha Uchcharad In Hindi

 शुद्ध उच्चारण एवं पठन

आक्षरिक उच्चारण के नियम

(1) कौन सा अक्षर किस स्थान से उच्चारित होता है, इसका ज्ञान विद्यार्थी को देना चाहिए तथा शिक्षक को उस अक्षर का स्वयं उच्चारण कर विद्यार्थियों से शुद्ध उच्चारण का अभ्यास कराना चाहिए।

(2) ष को हिन्दी में श की तरह बोला जाता है, ख के रूप में नहीं, जैसे- वर्षा ।

(3) ज्ञ को ग्य के रूप में बोला जाता हैं 'ज' के रूप में नहीं, जैसे- ज्ञान ।

(4) क्ष को क्छ अथवा क्ष के रूप में बोला जाता है न कि छ के रूप में, जैसे-क्षत्रिय, रक्षा।

(5) ॠ को रि के रूप में बोला जाता है, जैसे- ऋतु ।

(6) ञ् तत्सम शब्दों में संयुक्त अक्षर बनाने के काम आता है और उच्चारण अब न् के समान होता है, जैसे- चंचल, अंजन आदि ।

(7) ङ भी तत्सम शब्दों में प्रयुक्त होता है और उच्चारण अनुस्वार की तरह होता है, जैसे- गंगा, रंग लेकिन कुछ तत्सम शब्दों, जैसे- वाङ्गमय, पराङ्मुख में यह ध्वनि सुनाई देती है।

(8) ण का उच्चारण स्वर सहित होने पर ठीक ण की तरह होता है किन्तु स्वर रहित होने पर उसका उच्चारण न के समान होता है, जैसे- पण्डित, ठण्डा आदि ।

(9) दीर्घ स्वरों के साथ अनुस्वार का उच्चारण प्रायः चन्द्र बिन्दु () की तरह होता है। परन्तु प्रयोग अनुस्वार की तरह होता है, जैसे- हैं, मैं, नहीं आदि ।

गद्य व पद्य के अंशों का शुद्ध उच्चारण - Gadya Wa Padya Ke Anshon Ka Shudhha Uchcharad In Hindi

(10) अकारान्त शब्दों के अन्तिम व्यंजन का उच्चारण प्रायः हलन्त से किया जाता है किन्तु लिखा सस्वर जाता है, जैसे- प्यार, राम आदि ।

(11) अकारान्त चार अक्षर वाले शब्दों में दूसरे अकारान्त वर्ण का हलन्त उच्चारण किया जाता है, जैसे- दलदल, अड़चन, मलमल आदि ।

(12) अकारान्त चार अक्षर वाले शब्द का तीसरा अकारान्त वर्ण हलन्त से उच्चारित होता है।

(13) अकारान्त तीन अक्षर वाले शब्द का अकारान्त वर्ण हलन्त के समान बोला जाता है।

(14) द्य का उच्चारण दद्य के रूप में होता है, जैसे- विद्यार्थी।

अशुद्ध उच्चारण के प्रकार 

अशुद्ध उच्चारण के प्रकार अशुद्ध उच्चारण के प्रकार निम्न हैं।

(1) वर्णमाला के उच्चारण में क, ख, ग, घ को के, खे, उच्चारण करते हैं।

(2) स्वर लोप, जैसे- एकादश को एकादशा बोलते हैं। 

(3) शब्द के अन्त में लिखते 'इ' और बोलते 'ई' हैं। मुनि को मुनी तथा मनु को मनू बोलते हैं।

(4) स्वरागम का दोष होता है, जैसे- इस्कूल, इस्टेशन आदि । 

(5) स्वरभक्ति का दोष, जैस- श्री को सिरी तथा प्रताप को परताप कहते हैं ।

(6) ॠ लिखकर र पढ़ते हैं। वृक्ष को ब्रक्ष, गृह को ग्रह कहते हैं।

(7) लिखते ओ बोलते औ हैं, जैसे- गोशाला को गौशाला बोलते है।

(8) इकार व उकार के दोष श्रीमति को श्रीमती, पति को पती कहते हैं।

(9) चन्द्र बिन्दु तथा अनुस्वार का भ्रम जैसे अश्रु के स्थान पर आँशू बोलते हैं।

(10) ण को न का उच्चारण करते हैं। जैसे को प्रनाम बोलते हैं। गुण को गुन, प्रणाम

(11) स को श बोलते हैं श को स बोलते हैं। 

(12) अधिकतर क्ष को छ बोलते हैं। ज्ञ को ग्य बोलते हैं।

(13) अशुद्ध वाचन जैसे राजयोग को राजजोग बोलते हैं। 

(14) न को ण और ण को न बोलते है। जैसे- रावण को रावन कहते हैं।


उच्चारण दोषों के निराकरण के उपाय

(1) ध्वनि तत्त्व का ज्ञान कराना -बालक में जब भाषा का ज्ञान हो जाए और वह लिखने का कार्य आरम्भ करे तब बालक को हिन्दी भाषा के ध्वनि तत्त्व का पूरा ज्ञान कराना चाहिए। प्रत्येक ध्वनि के लिए अलग-अलग वर्ग निश्चित है अतः बच्चों को ध्वनियों का विस्तृत एवं स्पष्ट ज्ञान कराना चाहिए एवं निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(i) छात्रों को हिन्दी ध्वनियों का वर्गीकरण सिखान चाहिए ।

(ii) छात्रों को हिन्दी की विशेष ध्वनियों का अभ्या कराना चाहिए

(iii) छात्रों को उच्चारण स्थानों का ज्ञान कराना चाहिए

(2) मित्रमण्डली-भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है और अपने साथ रहने वाले व्यक्तियों के उच्चारण का बालक पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अतः यह प्रयास करना चाहिए कि बालक ऐसे लोगों के साथ रहे जो शुद्ध उच्चारण करें।

(3) अध्यापक का उच्चारण-कक्षा में अध्यापक के बोलने का पूरा प्रभाव बालक पर पड़ता है। उसका वाचन एवं अभियोग्यता आदि बालकों के द्वारा ध्यानपूर्वक सुने जाते हैं अतः अध्यापक को अपने उच्चारण पर बहुत ध्यान देना चाहिए।

(4) सन्तुलित व्यवहार- बालक के प्रति किए गए असंयमित व्यवहार बालक में डर की भावना पैदा करता है। कई बार बालक भय संकोच के कारण अशुद्ध उच्चारण करता है। अतः उसके भय, डर, संकोच एवं आत्महीनता को दूर करने के लिए उसके साथ प्रेम, सहानुभूति एवं प्रोत्साहनपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।


पठन शिक्षण की विधियाँ 

पठन शिक्षण में यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाए तो अधिक न्यायसंगत होगा। बालकों को स्वर, व्यंजन, वर्णमाला से परिचित कराया जाता है परन्तु पढ़ाने का तरीका रुचिकर न होने के कारण उनमें पढ़ने की इच्छा जागृत नहीं होती और वे इसे भार समझने लगते हैं। अध्यापक यदि खेल विधि से बालकों में पढ़ने की इच्छा जागृत करेगा तो यह क्रिया बहुत रुचिपूर्ण रहेंगी। इसी क्रम में 'London Board of Education' की पुस्तक 'शिक्षकों के लिए सुझाव में लिखा गया है कि, पढने की पहली सीढ़ी बच्चों को खेल मालूम होना चाहिए और यह खेल बच्चों को आकर्षक लगेगा। यह भावना उन् छात्रों के हृदय में शीघ्र उत्पन्न होगी जो अध्यापकों के मुख से अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनते हैं अथवा जिन्होंने अपने बड़ों से चित्रों की व्याख्या में लिखे विचित्र शब्दों का रहस्य जाना है।" मनोवैज्ञानिक क्रम से अभिप्राय बालकों की रुचि, आयु वर्ग, जिज्ञासा आदि के अनुरूप विषयवस्तु को प्रस्तुत करना है। आधुनिक शिक्षा-शास्त्रियों का मत है कि पठन की शिक्षा का प्रारम्भ तार्किक क्रम से नहीं अपितु सदैव मनोवैज्ञानिक से तार्किक क्रम की ओर जाना चाहिए। पठन शिक्षण की विधियाँ इस प्रकार हैं-

(1) अक्षर-बोध विधि 

(2) कहानी विधि

(3) शब्द-शिक्षण विधि

(4) वाक्य शिक्षण विधि

(5) ध्वनि साम्य विधि

(7) संयुक्त विधि


गद्य शिक्षण( Prose Teaching) 


गद्य-शिक्षण के उद्देश्य (Objectives of Teaching Prose) 

भाषा-शिक्षण के उद्देश्यों में एक प्रमुख उद्देश्य यह है कि छात्रों की विचार-शक्ति में वृद्धि हो सके और वे अपने विचारों को प्रभावी ढंग से व्यक्त कर सकें तथा विभिन्न साहित्यकारों द्वारा व्यक्त विचारों को सरलता से ग्रहण कर सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए गद्य-शिक्षण एक प्रभावी साधन है। गद्य शिक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित है- 

(1) छात्रों के वर्णों, शब्दों तथा वाक्यों के उच्चारण में शुद्धता उत्पन्न करना।

(2) छात्रों के विचारों, शब्दों सोक्तियों लोकोक्तियों सूक्तियों एवं कथाओं के कोश में क्रमशः विस्तार करना।

(3) चिन्तन में क्रमशः स्पष्टता, संगतता एवं क्रमबद्धता उत्पन्न करना ।

(4) वाक्यों में प्रयुक्त शब्द रूपों की शुद्धता और अशुद्धता समझने की स्तरोचित योग्यता उत्पन्न करना। 

(5) छात्रों को सुन्दर गद्यात्मक उद्धरणों के संकलन की प्रेरणा देना ।

(6) छात्रों के हृदय में भाषा-विषयक शुद्धता के प्रति गम्भीर सावधानी का भाव उत्पन्न करना ।

(7) ज्ञान क्षेत्र के विकास द्वारा चरित्र चित्रण करने की योग्यता उत्पन्न करना।

(8) विभिन्न लेखन शैलियों के परिचय द्वारा लेखन शैली के विकास में उनकी सहायता करना।

(9) छात्रों को उचित गति एवं स्वरों के उतार-चढ़ाव के अनुसार सस्वर वाचन करने के योग्य बनाना । 

(10) छात्रों को मौन पठन की कला में दक्ष बनाना। 

(11) छात्रों को मौखिक एवं लिखित रूप से विचारों को व्यक्त करने के योग्य बनाना ।

(12) छात्रों की कल्पना, बोध, निरीक्षण तथा विवेचना शक्तियों को विकसित करना ।

(13) छात्रों की रचनात्मक एवं सृजनात्मक शक्तियों का विकास करना।

(14) छात्रों में मानसिक, बौद्धिक तथा तार्किक शक्तियों का विकास करना।

(15) छात्रों को गद्य साहित्य की समीक्षा करने योग्य बनाना।


गद्य शिक्षण की विधियाँ

गद्य शिक्षण की विधियाँ गद्य शिक्षण की विधियाँ निम्नलिखित हैं- 

(1) अर्थ कथन प्रणाली - गद्य शिक्षण की यह परम्परागत विधि है। इस विधि में शिक्षक गद्य या निबन्ध का मौखिक पठन करता है और साथ ही गद्यांश में आए कठिन शब्दों का अर्थ बताता है। शिक्षक वाक्यों के भावों को स्पष्ट करने के लिए कथन करता है तथा सम्पूर्ण गद्यांश का अर्थ स्पष्ट कर देता है। इस विधि में शिक्षक ही सभी कार्य करता है और विद्यार्थी निष्क्रिय श्रोता बने रहते हैं। विद्यार्थियों को सोचने विचारने का अवसर प्राप्त नहीं होता है। विद्यार्थी अपने विचारों को उचित रूप में व्यक्त नहीं कर पाता है।

(2) व्याख्यान विधि- इस विधि में शिक्षक मौखिक पठन करने के पश्चात् शब्दों व भावों की व्याख्या करता है। गद्यांश का सरल शब्दों में अर्थ बताता है। शब्दों की व्याख्या में उपसर्ग, प्रत्यय, सन्धि तथा समास आदि की व्याख्या करता है एवं शब्दों के विलोम, पर्यायवाची आदि शब्द स्पष्ट करता है साथ ही भावों को स्पष्ट करने के लिए उनकी व्याख्या भी करता है। इस विधि में शिक्षक सक्रिय तथा विद्यार्थी निष्क्रिय रहते हैं।

(3) विश्लेषण विधि-यह विधि व्याख्या प्रणाली का ही सुधरा हुआ रूप है। इस विधि में शिक्षक शब्दों व भावों की व्याख्या के लिए प्रश्न व उत्तर का सहारा लेता है। इस प्रकार विद्यार्थी को सोचने व समझने का अवसर मिलता है। माध्यमिक स्तर पर यह विधि सर्वोत्तम मानी जाती है।

(4) समीक्षा विधि - इस विधि का प्रयोग उच्चतर माध्यमिक तथा उच्च कक्षाओं में किया जाता है। इस विधि में निबन्ध के तत्त्वों का विश्लेषण कर उसके गुण-दोषों की परख की जाती है। इस विधि का प्रयोग निबन्ध के तत्त्वों की व्याख्या तथा समीक्षा के सम्बन्ध में ही किया जाता है। प्राथमिक व पूर्व माध्यमिक स्तर पर व्याख्या एवं विश्लेषण प्रणालियों को संयुक्त रूप से प्रयोग करना चाहिए। माध्यमिक स्तर पर भाषायी ज्ञान व कौशल विकास के लिए व्याख्या तथा विश्लेषण प्रणालियों के साथ उनके (भाषायी ज्ञान व कौशल) तत्त्वों के विवेचन के लिए समीक्षा प्रणाली को भी अपनाना चाहिए। इस स्तर पर बालकों का सक्रिय होना आवश्यक है।


पद्य शिक्षण (Verse Teaching) 


पद्य शिक्षण के सामान्य उद्देश्य

पद्य शिक्षण के सामान्य उद्देश्य पद्य कल्पना और मनोवेगों द्वारा हमारे जीवन की व्याख्या करता है। यह हृदय की सीधी-सच्ची अभिव्यक्ति है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह पद्य शिक्षण के भी अपने उद्देश्य हैं जो निम्नवत् हैं-

(1) विद्यार्थियों में पद्य के प्रति रुचि व प्रेम उत्पन्न करना। 

(2) विद्यार्थियों को पूर्ण मनोयोग से कविता पाठ सुनने के योग्य बनाना।

(3) विद्यार्थियों को उचित गति, आरोह-अवरोह तथा भावानुसार काव्य पाठ करने के योग्य बनाना।

(4) विद्यार्थियों को काव्य पाठ सुनाकर उसका अर्थ ग्रहण करने व भावानुभूति करने योग्य बनाना।

(5) विद्यार्थियों को छन्द, शब्द, शक्ति, रस एवं अलंकार आदि का ज्ञान कराकर काव्य का पूर्ण रसास्वादन कराना।

(6) विद्यार्थियों में कल्पना व बोध शक्ति का विकास करना। 

(7) विद्यार्थियों में काव्य सौन्दर्य को परखने की क्षमता का विकास करना।

(8) काव्य में रुचि उत्पन्न कर काव्य-रचना के लिए प्रोत्साहित करना।

(9) विद्यार्थियों को विभिन्न काव्य- शैलियों से परिचित कराना। 

(10) काव्य के माध्यम से विद्यार्थियों को अपने देश व समाज की संस्कृति, सभ्यता, धर्म एवं दर्शन से परिचित कराना।


पद्य में अभिरुचि उत्पन्न करने के साधन

पद्य में अभिरुचि उत्पन्न करने के साधन निम्नलिखित हैं-

(1) मौलिक कविता लिखने का अभ्यास- बालक को प्रारम्भ से ही मौलिक कविता लिखने का अभ्यास कराना चाहिए। प्रारम्भ में तुकबन्दी ही सम्भव होगी किन्तु धीरे-धीरे स्तर ऊँचा उठता जाएगा।

(2) कविताओं का कण्ठस्थीकरण- कविताओं का कण्ठस्थीकरण अभिरुचि बढ़ाने में सहायक सिद्ध होता है। कविता के सुन्दर स्थल, नीति के दोहे आदि यथास्थान पर सुनाने कभी-कभी बिगड़े काम भी बन जाते हैं। अतः विद्यालय कविता के सुन्दर भावात्मक स्थल कण्ठस्थ कराने ताकि उन्हें कवि की कृतियाँ पढ़ने की प्रेरणा मिल सके।

(3) अन्त्याक्षरी के द्वारा अन्त्याक्षरी - नामक बौद्धिक खेल मनोरंजन भी होता है तथा कविता कण्ठस्थ करने की प्रे भी मिलती है। खेल ही खेल में असंख्य कविताएँ विद्यार्थ को याद हो जाती हैं और बालक नई-नई कविताएं सुनकर काव्य के प्रति अनुराग का विकास होता है।

(4) कवि सम्मेलन-कवि सम्मेलन द्वारा आमन्त्रित कवियों मुख से साक्षात् रूप में कविताएँ सुनने का हृदय पर और ही प्रभाव पड़ता है। कवियों को आत्म-प्रदर्शन का एवं श्रोताओं को रसानुभूति का परोक्ष रूप से अवसर प्राप्त होता है किन्तु सम्मेलन का स्तर उच्च होना चाहिए।

(5) कवि- दरबार- कवि दरबार में वास्तव में कवि नहीं आते। वरन् कवियों का नाट्य-विधि से सम्मेलन किया जाता है। काव्य में अभिरुचि बनाए रखने के लिए यह एक सस्ता साधन है। ऐसे कवि दरबारों से विद्यार्थियों को बहुत लाभ होता है।

(6) कवि जयन्ती- कवि जयन्ती में कवि की जन्मतिथि मनाकर कवि की ख्याति प्राप्त प्रमुख कविताओं का पाठ किया जाता है ताकि काव्य के प्रति अनुराग उत्पन्न हो सके।

(7) सुभाषित प्रतियोगिता - सुभाषित प्रतियोगिता में दूसरों की रचनाएँ सुमधुर स्वर में सुनाई जाती हैं। इसी बहाने विद्यार्थियों को सरस वाचन का अभ्यास हो जाता है और वह कवियों की उत्तमोत्तम रचनाओं को ढूँढ़ने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं।

(8) समस्यापूर्ति - प्रतियोगिता मध्यकालीन राजाओ के दरबार में हुआ करती थीं। राजा द्वारा एक पंक्ति समस्या के रूप में पढ़ दी जाती थी और कवि लोग उसकी पूर्ति करने हेतु आगे की पंक्तियों को जोड़ देते थे। शिक्षा-संस्थाओं में भी ऐसी प्रतियोगिताएँ हुआ करती थी किन्तु आजकल शिक्षा संस्थाओं में इस प्रतियोगिता को कोई स्थान प्राप्त नहीं है।


पद्य शिक्षण में ध्यान देने योग्य बातें 

पद्य शिक्षण में निम्नलिखित बातें ध्यान रखनी चाहिए- 

(1) शिक्षक पहले स्वयं उचित भाव-भंगिमा के साथ भावानुकूल सस्वर वाचन करें।

(2) अशुद्ध उच्चारण करने वाले विद्यार्थियों से कविता नहीं पढ़वानी चाहिए।

(3) प्रश्नोत्तर विधि का प्रयोग पद्य शिक्षण में कम किया जाए. यदि किया भी जाए तो भाषा-सौन्दर्य, भाव-सौन्दर्य का परिचय, रस-मग्न करने तथा अर्थ बोध की दृष्टि से ही किया जाए।

(4) वातावरण निर्माण या छात्रों के ध्यानाकर्षण हेतु बच्चों से समान भाव की कविता का वाचन करवाना चाहिए या कविता सुनना चाहिए। 

(5) बच्चों द्वारा सस्वर वाचन करवाना चाहिए।

(6) कविता में आए भाव सौन्दर्य, नाद-सौन्दर्य, विचार-सौन्दर्य, कल्पना तथा मर्मस्पर्शी स्थलों की पहचान व अनुभूति छात्रों को कराना चाहिए।

(7) कुछ वस्तुओं जैसे फूल, पुस्तक, पेड़, विद्यालय, परिवेशीय वस्तुओं या पशु-पक्षियों पर दो चार वाक्य बनवाएँ। 

(8) पद्य शिक्षण में कक्षाकार्य एवं निरीक्षण कार्य की कोई आवश्यकता नहीं होती है।

पद्य शिक्षण में शब्द- व्याख्या नहीं की जाती केवल शब्दार्थ बताए जाते हैं। विद्यार्थियों को साथ-साथ इन्हें लिख लेना चाहिए।

(10) पद्य पाठ में चित्र आदि न दिखाकर कल्पना को उत्तेजित करना चाहिए।

(11) कविता की एक पंक्ति देकर उसे पूरी कराएं जैसे-उड़ती जाए हरी पतंग....

चाहिए

(12) कुछ शब्द देकर छात्रों से कविता बनाने को कहें। 

(13) पद्य शिक्षण में कम से कम तीन बार शिक्षक द्वारा आदर्श वाचन करना चाहिए।

(14) पद्य शिक्षण में बौद्धिक विकास के स्थान पर भावात्मक विकास पर बल देना चाहिए।


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